सार्थक प्रयास ब्यूरो
देहरादून , रंगमंच विभाग, दून विश्वविद्यालय द्वारा अजीम प्रेमजी फाउंडेशन के सहयोग से राजकीय इंटर कालेज डोभालवाला और गुरुकुल कांगड़ी कालेज, आर्यनगर,राजपुर में मुंशी प्रेमचंद की कहानी सदगति का सुंदर मंचन किया गया जिसका निर्देशक डॉ अजीत पंवार ने किया। इस नाटक में अरुण ठाकुर, गायत्री टम्टा, सिद्धार्थ शार्मा, गीतांजलि, रिपुल वर्मा, चन्द्रभान, आकांक्षा, प्रियांशी, आदि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस अवसर पर दुष्यंत कुमार, अर्जुन सिंह नेगी, मनमोहन भगुना, जितेंद्र कुमार, हेमलता रावत, टी एस नेगी, लोकानंद जोशी, मनीषा तिरपाठी, मनीषा जैन, अर्चना नेगी, पी सी सुंद्रियाल, प्रोo रेनू शुक्ला, डॉ अर्चना डिमरी उपस्थित थे । इस समारोह में अजीम प्रेमजी फाउंडेशन से अनूप बडोला, अशोक मिश्रा, मिनाक्षी, जगमोहन और रवि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस इस अवसर पर दून विश्वविद्यालय के कुलपति महोदया प्रोo सुरेखा डंगवाल, कुलसचिव महोदय डॉ मंगल सिंह मन्द्रवाल, डॉ चेतना पोखरियाल, प्रो0 आर0सी पुरोहित, प्रो0 हर्ष डोभाल, , डॉ राकेश भट्ट, डॉ राजेश भट्टऔर अन्य अध्यापकों ने बधाइयां और शुभकामनाएं दी।
सद्गति के बारे में
हिन्दी कहानी के इतिहास में ‘सद्गति’ अति चर्चित व ज़रूरी कहानी है। यह एक हृदयविदारक कहानी है। यह धार्मिक पाखंड, कर्मकांडी पुरोहितों की घिनौनी मानसिकता और दलित शोषण को दर्शाती है। इस कहानी के लेखक प्रेमचंद हैं, वे दलितों के शोषण का मूल कारण वर्ण व्यवस्था का स्वीकार व मानसिकता को मानते हैं। अनेक धार्मिक व सामाजिक संस्कार / मान्यताएँ रूढ़ियों और पाखंड में तब्दील कर दी गईं। प्रेमचंद धर्म, जाति, पूंजी और राजनीति के सम्बन्धों को अच्छी तरह से जानते थे। उनके साहित्य में हमारे समाज की विद्रूपताओं, समस्याओं, अंधविश्वासों, दुर्बलताओं, विसंगतियों का प्रामाणिक चित्रण हुआ है। जहाँ तक सद्गति का सवाल है तो यह कहानी भी एक यथार्थ व समस्यापरक कहानी है। यह दलित की नाबालिग बेटी के विवाह ( मुहूर्त) संस्कार से शुरू होकर दलित के अंतिम संस्कार के सवाल पर आकर ब्राह्मणवादी शोषकों की पोल खोलती है। इस कहानी को अनेक मंचों से खेला गया है, 1981 में इस पर सत्यजीत रे ने इसी नाम से एक गज़ब फिल्म बनाई थी।
प्रेमचंद इस कहानी के माध्यम से जातिवाद, अस्पर्श्यता, रूढ़ियों, सामाजिक कर्मकांडों, लोक-व्यवहार के नियमों से बंधे दलितों और सदियों से चलते आ रहे धार्मिक पाखंड पर ज़ोरदार चोट करते हैं। यह शोषण पर लिखी गई मारक व संवेदनशील कहानी है। इसका कथ्य दुखी नाम के एक ग़रीब दलित, उसकी पत्नी झुरिया, पण्डित घासीराम, उसकी पत्नी और चिखुरी गोंड के इर्द-गिर्द घूमता है। इसका कथ्य, परिवेश, चरित्र और भाषा शोषक की निर्ममता को बड़ी सूक्ष्मता से सामने लाते हैं। दुखी अपनी बेटी की शादी की साइत (मुहूर्त) विचरवाने को लेकर पण्डित घासीराम को आमंत्रित करने के लिए जाता है। घर से निकलने से पहले दुखी और उसकी पत्नी झुरिया के बीच हुए संवाद से जो परिवेश सामने आता है, वह स्पष्ट कर देता है कि दलितों का हमारे समाज में क्या स्थान है। उन्हें तथाकथित ऊँची जाति वाले अपने दरवाज़े पर बैठने तक नहीं देते। सवर्णों के बीच में दलित अधिक सचेत होकर, उनकी अधीनता और अपनी हेयता स्वीकार करते हुए रहते हैं। वे ब्राह्मण की महिमा से अभिभूत भी हैं, जैसे दुखी को इस बात का विश्वास व डर है कि सबके रुपये मारे जाते हैं, बाभन के रुपये भला कोई मार तो ले। घरभर का सत्यानाश हो जाए, पाँव गल- गलकर गिरने लगे। दुखी अपनी पत्नी को पण्डित घासीराम के स्वागत की तैयारी के लिए कुछ सुझाव व निर्देश देते हैं, जैसे पण्डित को दान देने वाले सीधा (अनाज) को छूना मत, महुए के पत्तों का आसान बना देना आदि। स्वयं भी वह खाली हाथ न जाकर पण्डित की गाय के लिए घास का एक गट्ठर लेकर जाना ठीक समझता है। इनके वंशज आज भी कचरा-मैला ढोने वाली व्यवस्था के शिकार हैं।