भगवान काशी विश्वनाथ की पावन नगरी मैं बाड़ाहाट का थोलू प्रचलित माघ मेला 15 जनवरी मकर संक्रांति से प्रारंभ हो गया है इस पावन पर्व पर देवडोलिया गंगा स्नान हेतु उत्तरकाशी मैं आते है गंगा स्नान के बाद अपने अपने स्थान को जाते है लेकिन बड़गडी के ईष्ट देव हरिमहाराज ,नागदेवता ,खंडद्वारी का 3 दिवसीय मेला यंहा पर चलता है
इसी परिपेक्ष मैं आज का मेला यादगार मेला रहा कियूंकि विगत कही वर्षो पाटा ,संग्राली ,बड़गाडी मैं देवता के लिए आपस मे मन मुटाव होता रहता था ये देवताओं का मनमुटाव नही बल्कि मनुष्यों का था ये मेला मनुष्यों का ही नही देवताओं का है मेला का अर्थ है मिलन मिलाप ओर इस मेले आये तमाम देवी देवता भी आपस मे कही सालों बाद मिलते है इस मिलन को मेले का नाम दिया गया ।कहते है कि बहुत समय पहले गंगा नदी उस पार बहती थी उस समय काशी विश्वनाथ हमारी बड़गडी मैं था तो यह स्थान बड़गडी मैं था उस समय या पहले से ये मेला हरिमहाराज ,खंडद्वारी ,हुनेस्वर ही यहाँ पर आते थे चामला कि चूउंरी मैं उसके बाद गंगा जी थी वँहा पर दुपहारी पूजने के बाद रासू नृत्य करते थे वहीं पाटा संग्राली वाले कण्डार देवता को स्नान करके अपने स्थान ले जाते थे अब गंगाजी विश्वनाथ के इधर साइड आ गई मतलब अब विश्वनाथ गंगा के उस पार हो गया तो ये मन मुटाव देवता के स्थान पर आज भी है लेकिन आज पाटा संग्राली के लोगों ने बाड़ागड़ी के ईष्ट हरिमहाराज ,नागदेवता ,खंडद्वारी, नागबुध देवता को आदर पूर्वक कण्डार देवता के मंदिर मे पीठाई लगाई तो ये अच्छी पहल है ये शायद पहली बार है देवता लोग कभी भी मन मुटाव नही करते ये हम सब मनुष्यों की वजह से है एक दूसरे को बड़ा समझना इसी कारण मन मुटाव होते है वही एक चीज़ सीखने को मिली कि देवता भी अपने से बड़ो का आदर करते है पहले जमाने मे बोलते थे कि जो महाससुर होते है उनके समाने कोई महिला नही जाती थी मतलब जो भांजे की ब्वारी है यही रिश्ता कण्डार का ओर खंडवरी देवी का है ये हमारी पुरानी परंपरा है देवता भी अपनी परंपरा मैं रहते हैं लेकिन मनुष्यों ने इसे भूल दिया है ।
जय हरीमहाराज