
देहरादून। उत्तराखंड में जब-जब आपदा ने राहें रोकीं, पुल बह गए और गांव-शहर का संपर्क टूटा, तब-तब बेली ब्रिज उम्मीद बनकर खड़े हुए। लोहे के इन अस्थायी पुलों ने टूटी पगडंडियों को जोड़ा और जिंदगियों को आगे बढ़ने का हौसला दिया। मौजूदा आपदा में अब तक 38 पुल टूट चुके हैं और सैकड़ों गांव सड़क से कट गए हैं। ऐसे में लोनिवि और बीआरओ ने जगह-जगह बेली ब्रिज लगाकर संपर्क बहाल किया है।
गांव-गांव तक पहुंची राहत
बेली पुल लगने से बच्चों को स्कूल जाने का रास्ता मिला, गर्भवती महिलाओं और मरीजों को अस्पताल पहुंचने का सहारा। सीमांत गांवों के किसानों की सब्जियां और फसलें फिर से बाजार पहुंचने लगी हैं। द्वितीय विश्व युद्ध में तैयार हुए ये पुल आज भी पहाड़ों के लिए जीवनरेखा साबित हो रहे हैं।
लोनिवि के पास 31 पुल, और 20 की तैयारी
लोनिवि के विभागाध्यक्ष राजेश शर्मा के मुताबिक विभाग के पास कुल 31 बेली ब्रिज हैं। इनमें उत्तरकाशी में सबसे ज्यादा 9 हैं। सबसे अधिक 10 पुल 24 मीटर आकार के हैं। विभाग अब 20 नए बेली ब्रिज लेने की तैयारी कर रहा है।
हर आपदा में सहारा
* लिमचीगाड-धराली (उत्तरकाशी) में बादल फटने के बाद बेली ब्रिज से संपर्क बहाल।
* गंगनानी-गंगोत्री मार्ग पर पुल टूटने के बाद बनाया गया बेली ब्रिज।
* मसूरी-देहरादून मार्ग पर बेली ब्रिज से यातायात शुरू।
* काठगोदाम-कलसिया नाला (नैनीताल) में बेली ब्रिज से आवाजाही।
* पौड़ी-बुआखाल-धुमाकोट-रामनगर मार्ग पर पाबौ के पास बेली ब्रिज।
24 से 48 घंटे में तैयार
बेली ब्रिज स्टील पैनल, चक्केदार रोलर और बीम से तैयार होता है। स्टील फ्रेम पर लकड़ी या स्टील प्लेटें बिछाई जाती हैं। प्रशिक्षित टीम 24 से 48 घंटे में इसे खड़ा कर देती है।
1940 में पहली बार प्रयोग
बेली ब्रिज का अविष्कार ब्रिटिश इंजीनियर सर डोनाल्ड बैली ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान किया था। सैनिकों और भारी वाहनों को नदियों-खाइयों के पार पहुंचाने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया था। आज वही तकनीक आपदा से जूझते उत्तराखंड को जोड़ रही है।