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‘ देवस्थानम बोर्ड – कौन सुलझाएगा गुत्थी ‘

एक्ट में हक - हकूक धारियों की उपेक्षा नहीं तसे इसे सार्वजनिक करने में गुरेज क्यों

डॉ योगेश धस्माना
देहरादून। यदि देवस्थानम बोर्ड को लेकर कई गुत्थियां हैं। सब कुछ ठीक है तो फिर सरकार इसे सार्वजनिक कर , क्यों नहीं जनता की समस्याओं का अंत करती है । यह बात सच है कि चार धाम के ढांचागत विकास के लिए निजी क्षेत्र की भागीदारी जरूरी है , किंतु यह केवल अंबानी – अडानी ही इसके लिए सरकार की पसंद हो , तो यह उचित नहीं है । देवस्थानम बोर्ड में तदर्थ रूप से लगभग उत्तराखंड के 50 मंदिर शामिल करने की बात की जा रही है , किंतु इसका मसौदा आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया है । इससे गलत संदेश जा रहा है । यदि सरकार द्वारा इस एक्ट में हक – हकूक धारियों की कोई उपेक्षा नहीं कर रही है , तो इसे सार्वजनिक करने में क्यों संकोच किया जा रहा है ।

मनोहर कांत ध्यानी की अध्यक्षता में जिस कमेटी का गठन सरकार द्वारा किया गया और हक हकूक धारियों की समस्याओं के समाधान की बात की जा रही है , और यदि यह बात सही है , तो फिर देवस्थानम बोर्ड को की संस्तुतियों को सार्वजनिक करने का साहस सरकार क्यों नहीं कर रही है ? जहां तक हक – हक्कू की बात है , तो हमारे शिल्पी समाज के ढोल वादकओं के आर्थिक हितों के लिए सरकार शंकराचार्य द्वारा स्थापित व्यवस्थाओं को किस तरह सुरक्षित कर रही है , उसे भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए । जहां तक चार धाम की मूलभूत सुविधाओं के विकास का प्रश्न है , तो देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज जिसे सरकार जागृत कर चुकी है I उसी के सहयोग से किया जा सकता है प्रचलित प्रबंध में खामियां जरूर है किंतु उन्हें एक प्रबंध समिति जिसमें कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर लोगों को शामिल किया जाना चाहिए ।

शंकराचार्य द्वारा सामाजिक समरसता और साथ में काली कमली समाज के द्वारा इस पूरे यात्रा मार्ग पर उपस्थित छुट्टियों में , जिस तरह की निशुल्क भोजन आवास और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती थी ; आज क्यों नहीं परंपरागत व्यवस्था और चट्टियों को विकसित करने की बात सरकार कर रही है ? मोदी सरकार यदि आम जनता से राम मंदिर के निर्माण के लिए अरबों रुपए की धनराशि एकत्रित कर जन भावनाओं का आदर करने की बात कर रही है , तो फिर केदारनाथ के नवनिर्माण के लिए क्यों नहीं वह जनता के सहयोग का आह्वान करते हैं ।

मशहूर पर्वतारोही सर एडमंड हिलेरी ने 1979 में नंदप्रयाग में एक वक्तव्य में कहा था कि , गढ़वाल हिमालय को पर्यटन से आए कमाने का जरिया नहीं बनाया जाना चाहिए । दूसरी तरफ शंकराचार्य ने जिस व्यवस्था के माध्यम से सामाजिक समरसता पूर्ण आर्थिक व्यवस्था को जन्म दिया था , जिससे हमारे हक- हकूक निर्धारित किए गए थे , आधुनिक विकास की प्रक्रिया में वे समाप्त हो जाएंगे, किंतु नई व्यवस्था से जहां आध्यात्मिक शांति को लगातार खतरा है , वहीं इस संवेदनशील पहाड़ को भी एक नए संकट से जूझने के लिए तैयार रहना होगा ।

 

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