
देवेन्द्र कुमार बुडाकोटी
मनुष्य का बचपन अन्य जीवों की तुलना में अधिक लंबा होता है। इस दौरान बच्चों को सही देखभाल और मार्गदर्शन मिलना आवश्यक है। परिवार ही वह पहली संस्था है जो बच्चों की परवरिश, मानसिक विकास और सुरक्षा का आधार बनती है। विवाह और पारिवारिक रिश्तों की पारंपरिक व्यवस्था ने पीढ़ियों से बच्चों के पालन-पोषण, सामाजिक स्थिरता और संस्कृति को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
परिवार की भूमिका केवल बच्चों तक सीमित नहीं है। मातृभाषा, लोकगीत, परंपराएँ और रिश्तों की गर्माहट समाज की पहचान को गढ़ती हैं। मलेशिया की एक कहावत है— “भाषा समुदाय की आत्मा होती है।” लेकिन आज शहरी क्षेत्रों में यह आत्मा खोती जा रही है। उत्तराखंड के कई परिवारों में दूसरी और तीसरी पीढ़ी मातृभाषा बोलने से कतराती है। भाषा के साथ ही लोककथाएँ, गीत, पहनावा और सांस्कृतिक पहचान धीरे-धीरे कमजोर पड़ती जा रही है।
आज पारंपरिक वस्त्र — कुर्ता, पायजामा, धोती — केवल त्योहारों और विवाह जैसे अवसरों तक सीमित रह गए हैं। विवाह जो कभी एक पवित्र संस्कार माना जाता था, अब एक सामाजिक आयोजन में बदलता जा रहा है। पहले “नौतार” में रिश्तेदार यादें साझा करते थे, अब वह कॉकटेल पार्टी में बदल गई है। “बाना-हल्दी हाथ” जैसी रस्में भावनात्मक जुड़ाव के बजाय मनोरंजन का हिस्सा बन रही हैं। सात फेरों की जगह अब संगीत, नृत्य और पार्टियों का आयोजन प्रमुख हो गया है।
शहरों की ओर पलायन ने जातीय सीमाओं को भी धुंधला कर दिया है। अनुमान है कि अब आधे से अधिक युवक-युवतियाँ अपने समुदाय से बाहर विवाह कर रहे हैं। आने वाले समय में यह बदलाव सामाजिक ढांचे और सांस्कृतिक पहचान पर गहरा असर डाल सकता है।
विकास की दृष्टि से पहाड़ों की स्थिति भी चिंताजनक है। कोविड के दौरान गाँव लौटे लोग अब फिर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। यह स्पष्ट संकेत है कि रोजगार और अवसरों की कमी पहाड़ी समाज को मजबूर कर रही है। “रिवर्स माइग्रेशन” की बातें तो होती हैं, लेकिन हकीकत अलग है।
ऐसे में अब ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। चकबंदी जैसे प्रयास कृषि को फिर से लाभकारी बना सकते हैं। गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने पर गंभीर विचार होना चाहिए। साथ ही, हर वर्ष ग्रामोत्सव जैसे आयोजन युवाओं को अपनी जड़ों से जोड़ सकते हैं और परिवारों को गाँव लौटने का अवसर दे सकते हैं।
समाज में आधुनिकता का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन अपनी जड़ों और परंपराओं को संभालना भी उतना ही आवश्यक है। बदलते समय के साथ अपनी संस्कृति, भाषा और परिवार की अहमियत को बनाए रखना आज हर नागरिक की साझा जिम्मेदारी बन चुका है।