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फूल-देई: स्कूल की देहरी पर सजाये फूल

लोक-पर्व फूल देई को लेकर जीआईसी बुरांसखंडा में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित।

देहरादून। राजकीय इण्टर कॉलेज बुरांसखंडा, देहरादून में शिक्षा विभाग की पहल पर लोकपर्व *फूल-देई* को जीवंत रखने के लिए अनेक कार्यक्रम आयोजित किये गए। छात्रों ने परम्परा को आगे बढ़ाने हेतु अपने-अपने रीति-रिवाजों के अनुसार कार्यक्रम प्रस्तुत कर संदेश दिया।

 

इस अवसर पर बच्चों द्वारा रिंगाल की टोकरी में रंग-बिरंगे फूल एकत्रित कर विद्यालय परिसर के भवनों की देहरी (चौखट) पर डालकर परम्परा का निर्वहन किया। विद्यालय के प्रधानाचार्य दीपक नेगी सहित सभी शिक्षक कर्मचारियों ने बच्चों को दक्षिणा देकर आशीर्वाद दिया।

 

प्रधानाचार्य दीपक नेगी ने कहा कि इस प्रकार के कार्यक्रम लोकपर्व को जीवन्त रखने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। उन्होंने कहा कि शिक्षा विभाग की पहल पर विद्यालय में छात्रों ने लोकपर्व *फूल-देई* मनाकर परम्परा को जीवन्त रखने का दिया संदेश।

 

*’फूल-देई’* उत्तराखण्ड का एक स्थानीय त्यौहार है, जो चैत्र माह के आगमन पर हर्षोल्लास से मनाया जाता है। अभी हाल ही में उत्तराखंड राजभवन द्वारा आयोजित पुष्प प्रदर्शनी की आमजन ने खूब सराहना भी की। *इसमें कोई अतिसंयोक्ति नहीं कि पर्वतीय राज्य उत्तराखण्ड की पहचान देवभूमि के साथ ही वीर भूमि एवं उत्सवों की भूमि से भी है।

 

* यहाँ पर वर्ष भर उत्सव, पर्व, त्यौहार एवं मेलों के साथ जीवन का आनन्द लिया जाता है। बसंत के आगमन का स्वागत भी लोकपर्व के रूप में त्यौहार मनाकर किया जाता है। गढ़वाल और कुमाऊँ में जहाँ इस त्यौहार को *फूलदेई* कहा जाता है, वहीं जौनसार बावर में *गोगा*। *फूलदेई को पुष्प-संक्रांति, फूल-संक्रांति आदि के नामों से भी जाना जाता है। चैत्र मास के पहले दिन मनाया जाने वाला यह त्यौहार हिन्दू कैलैंडर के हिसाब से नए साल का स्वागत भी करता है।*

 

बचपन से देखते आये हैं कि माह प्रारम्भ होते ही अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे पुष्प खिल आते हैं, जिनमें मुख्यतः फ्यूंली, बुरांस, गुलाब, लाई(सरसों), ग्वीर्याल, हिंसर, किनगोड़, पैंया आदि प्रमुख हैं। छोटे-छोटे बच्चे हाथों में रिंगाल की टोकरी (कंडी) लिए बड़े उत्साह से इन फूलों को लेकर आते हैं। यहाँ गढ़वाल में बच्चे टोली बनाकर अपनी बोली-भाषा में गुनगुनाते हुये अक्सर यह सुनाई देते हैं –
*”चला फुलारी फूलों क, फूल ल्योला फ्यूंली का।*
*सौदा-सौदा फूल बिरौला!*
*भौंरों का जूठा फूल ना तोड्यां,*
*म्वारर्यूं का जूठा फूल ना लैयां।*
*जय माता की भौर, चल मेरी कंडी घौर”।।* वहीं कुमायूँ में भी परम्परा का निर्वहन कुछ इस तरह से किया जाता है –
*फूल देई, छम्मा देई, देणी द्वार, भर भकार!*
*ये देली स बारम्बार नमस्कार।*
*फूले द्वार…फूल देई-छ्म्मा देई।*
*फूल देई माता फ्यूला फूल*
*दे दे माई दाल-चौल।।*
ग्रामीण अंचलों में मनाये जाने वाले इस *फूल-देई* त्यौहार को बड़े हर्षोल्लास से मनाये जाने के पीछे एक कारण शायद यहाँ पर पाई जाने वाली बहुमूल्य वन-सम्पदा भी है। हो भी क्यों नहीं, पर्वतीय अंचल की वनस्पति का मानव जीवन के साथ सीधा सा पारस्परिक अन्तर्सम्बन्ध जो है। इसीलिए चैत्र माह आते ही जहाँ चारों तरफ प्रकृति में फूलों की बहार दिखाई देती है, वहीं हर प्राणी के मन में स्वतः उल्लास के भाव आने लगते हैं। परम्पराओं के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें, तो भविष्य के वाशिंदों के लिए यह समय सबसे ज्यादा उपयोगी व कीमती होता है। सालभर बच्चों ने जो कुछ पढ़ा व सीखा उसका आंकलन भी अक्सर इसी समय होता है। प्रायः यह देखा गया है, कि इस ऋतु में अधिकांश लोगों विशेष रूप से बच्चे और युवाओं में बहुत देर तक सोए रहने की प्रवृत्ति होती है। यदि इस ऋतु में उन्हें जल्दी जगाया जाए तो उनकी यही आदत पूरे वर्ष भर के लिए बन जाती है। हमारे पूर्वजों की मंशा इस पर्व को प्रकृति व विज्ञान के साथ जुड़ाव की शायद यही वजह हो, कि किस प्रकार से बच्चों में सुबह जल्दी जगाने की आदत डाली जाए। इसके लिए बच्चों को फूलदेई त्यौहार के साथ जोड़ा गया हो। बच्चे बड़े उत्साह के साथ सुबह उठकर ताजे फूल लाकर अपने मन्दिर के अलावा देहरी में भी रखें। प्रातःकाल उठने की आदत से जहाँ बच्चों में बीमारियों का नाश होता है, वहीं अनेकों अच्छाइयां भी शरीर में प्रवेश करती हैं।
फूल डालने पर उपहारस्वरूप बच्चों को चावल, मिठाई व दक्षिणा दी जाती है। यह क्रम यहीं खत्म नहीं होता, पेड़ पौधों में नई-नई कोपलें आने लगती हैं जो घरेलू पालतू जानवरों के लिए पाचन की दृष्टि से उपयुक्त नहीं होता।अब बच्चे उन चावलों की खिचड़ी बनाते है, जंगल के अंयार जैसे जहरीले पौधे को कूटकर उसमें यह खिचड़ी मिलाकर अपने जानवरों को दिया जाता है। इसके पीछे मान्यता है, कि इसके खिलाने से पालतू जानवरों में जहर का असर नगण्य हो जाता है।
निःसंदेह पर्वतीय राज्य की यह अनूठी बाल पर्व की परम्परा *’फूल-देई’* मानव और प्रकृति के बीच के पारस्परिक सम्बन्धों का प्रतीक है।
दूसरी ओर वनस्पति विज्ञान के इस विषय को एथनोबोटनी नाम दिया गया, अर्थात ऐसी वनस्पति जो हमारे परिवेश में हमारी संस्कृति, धर्म-कर्म एवं आचार-विचार से जुड़ी है।
इस सन्दर्भ में सतयुग में पुष्प पूजा का महत्व पुराणों में भी वर्णित है। शीत काल के दौरान तपस्या में लीन शिव की तन्द्रा तोड़ने का जिक्र भी प्रचलित है, जिसको अगले अंक में प्रस्तुत करने का प्रयास होगा।
कार्यक्रम में सान्वी, ईशा, आयशा, इशिका, प्रियांशी, शौरभ, गौरव, मयंक आदि सम्मिलित रहे। इस अवसर पर प्रधानाचार्य दीपक नेगी, प्रवक्ता एन वी पन्त,कृष्ण कुमार राणा, आर के चौहान, कमलेश्वर प्रसाद भट्ट, प्रियंका घनस्याला, नेहा बिष्ट, जी वी सिंह, सुमन हटवाल, मनीषा, संगीता, रोहित रावत, प्रवीण व राकेश आदि ने कार्यक्रम की सराहना करते हुए बच्चों का उत्साहवर्धन किया।

 

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