उत्तराखंड

कुलाधिपति परिवार ने श्रीजी की शांतिधारा का पुण्य कमाया

 

तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी के रिद्धि- सिद्धि भवन में कल्पद्रुम महामंडल विधान के चतुर्थ दिवस पर विधान का परम रहस्य और चक्रवर्ती का आत्म-वैराग्य का विस्तार से वर्णन

तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी, मुरादाबाद के रिद्धि- सिद्धि भवन में आयोजित कल्पद्रुम महामंडल विधान के चौथे दिन भक्ति, ज्ञान और आत्म-चिंतन की पराकाष्ठा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। समस्त मुनि संघ के पावन सान्निध्य और उनके ओजस्वी उपदेशों ने श्रद्धालुओं को विधान के आंतरिक फल और चक्रवर्ती के वैभव में निहित वैराग्य से अवगत कराया। कल्पद्रुम महामंडल विधान का शुभारंभ भगवान महावीर के महा अभिषेक से हुआ,जबकि मंगल शांतिधारा करने का परम सौभाग्य टीएमयू के कुलाधिपति श्री सुरेश जैन के परिवार को प्राप्त हुआ।कुलाधिपति श्री सुरेश जैन , ग्रुप वाइस चेयरमैन श्री मनीष जैन,एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर श्री अक्षत जैन आदि ने शांतिधारा में सम्मिलित होकर पुण्य संचित किया। साथ ही जैन फैकल्टीज भी सामूहिक रूप से शांतिधारा में शामिल हुई। विधान के दौरान गूँजते भक्तिमय संगीत और मंत्रों के बीच श्रद्धालुओं ने अत्यंत उत्साह और निर्मल भाव से विधान में भाग लिया और भक्ति की पराकाष्ठा में झूम उठे। विधान में फर्स्ट लेडी श्रीमती वीना जैन, श्रीमती ऋचा जैन, श्रीमती जाह्नवी जैन के अलावा वीसी प्रो. वीके जैन, प्रो. रवि जैन, प्रो. विपिन जैन, श्री विपिन जैन, श्री मनोज कुमार जैन, डॉ. कल्पना जैन, श्रीमती नीलिमा जैन, डॉ. अर्चना जैन आदि की भी उल्लेखनीय मौजूदगी रही।

विधान के मुख्य क्रम में सभी श्रद्धालुओं ने मंत्रोच्चार और भक्तिभाव के साथ अपने हाथों में द्रव्य, फल और पुष्प लेकर प्रभु के चरणों में अर्घ समर्पित किया।विधान में विराजमान समस्त मुनि संघ और आर्यिका रत्न ज्ञानमति माताजी के निमित्त भी विशेष अर्घ्य समर्पित किए गए। आज के प्रवचन सत्र में श्रद्धालुओं द्वारा गुरु जी से दो महत्त्वपूर्ण जिज्ञासाएँ रखी गईं, जिन पर उपाध्याय श्री 108 प्रज्ञानंद जी महामुनिराज ने गहन आध्यात्मिक प्रकाश डाला कल्पद्रुम महामंडल विधान का परम रहस्य यानी आंतरिक फल का महत्व क्या होता है, एक श्रद्धालु ने गुरु जी से जानना चाहा।

उपाध्याय श्री ने विधान के महत्त्व को कर्म सिद्धान्त से जोड़ते हुए समझाया कि यह विधान मात्र बाहरी क्रिया नहीं है, बल्कि अष्टकर्मों की निर्जरा का सशक्त माध्यम है। उन्होंने कहा कि कल्पद्रुम’ वास्तव में जीवात्मा की शक्ति का प्रतीक है। इस विधान के माध्यम से हम अपने शुभ परिणामों को इतना सशक्त करते हैं कि वे अनुकूल पुण्योदय को खींच लाते हैं। विधान का मुख्य फल सच्चे देव, शास्त्र और गुरु के प्रति श्रद्धा की दृढ़ता है, जो सम्यक दर्शन को पुष्ट करती है। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह विधान हमें संसारी सुखों की क्षणभंगुरता का बोध कराकर आत्म-कल्याण की ओर उन्मुख करता है।

दूसरा सवाल था,चक्रवर्ती का अलौकिक, आगम-सम्मत वैभव -वैराग्य की पृष्ठभूमि क्या है ? उपाध्याय श्री ने जैन परंपरा के अनुसार चक्रवर्ती के अद्वितीय और त्रैलोक्य-दुर्लभ वैभव का वर्णन किया। उन्होंने बताया कि चक्रवर्ती छह खण्डों -षट्खण्ड का अधिपति होता है, जिसे 14 रत्न और निधियाँ पूर्व पुण्य से स्वतः प्राप्त होती है। क्षुल्लकरत्न श्री 105 समर्पण सागर जी महाराज ने कथाओं का स्मरण कराते हुए कहा कि चाहे मेढक की भक्ति हो या चक्रवर्ती का वैभव, दोनों ही सम्यक भावों के बिना मोक्ष के द्वार तक नहीं पहुँच सकते। विधान के मंत्रोच्चार के बीच, सभी उपस्थित हजारों श्रद्धालुओं ने श्रद्धा और समर्पण के भाव से प्रभु के चरणों में अर्घ समर्पित किया और पुण्य कमाया।

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