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अब नहीं दी जाती शादी में ऐसी गाली जिसमें गुस्सा नहीं हसीं आती थी

यह सत्तर और अस्सी के दशक की बात है जब लड़की की शादी में गांव की उसकी सहेलियां वर पक्ष के लोगों को गाली (गढ़वाली में गाळि) देती थी। ऐसी गाली जिसको सुनकर वर पक्ष के लोगों के चेहरों पर गुस्सा नहीं बल्कि मुस्कान तैर जाती। प्यार और छेड़खानी से भरी चुटीली गालियां जो गीत के रूप में दी जाती हैं। स्वर एक लय में बहता है, जिसमें शरारत और हास्य छिपा होता है। गढ़वाली से लेकर हिन्दी में गालियां देने का प्रचलन रहा है, लेकिन अधिकतर गालियां स्थानीय भाषा में ही होती हैं। दूल्हे से लेकर, दूल्हे के पिता, वर पक्ष के पंडित, दूल्हे के साथियों हर किसी के लिये शादी की विभिन्न परंपराओं के अनुसार दी जानी वाली गालियां। क्रोध में दी गयी गालियों में प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाया जाता है लेकिन शादी में दी जाने वाली गालियां उमंग और अनुराग में दी जाती हैं तथा यह आपकी आपसी घनिष्ठता और प्रेम की प्रतीक होती हैं। दूल्हा और दुल्हन पक्ष एक दूसरे से अमूमन अजनबी होते थे और एक समय इस अजनबीपन को दूर करने में अहम भूमिका निभाती थी गालियां।

उत्तराखंड ही नहीं भारत वर्ष के कई प्रांतों में शादियों में मजाक में गालियां देने की परंपरा है। हर जगह महिलाएं ही गाली देती हैं। एक तरह शादियों में मजाक में गालियां देने की परंपरा तो सदियों पुरानी है। यहां तक कि भगवान राम जब बारात लेकर मिथिला गये तो वहां सीता की सहेलियों और अन्य महिलाओं ने दूल्हे राम से भी चुहलबाजी की थी। कुछ इस तरह से ‘दशरथ गोरा, कौशल्या गोरी, फिर आप काले क्यों हो गये …..।’ मिथिलांचल में अब भी शादियों में गाली देने परंपरा है। वहां अक्सर निशाने पर समधी यानि दूल्हे का पिता होता है। मसलन ‘चटनी चूरी, चटनी पूरी, चटनी है लंगूर की। खाने वाला समधी मेरा, सूरत है लंगूर की।” हमारा प्रयास है आज पीढी को भी पता चले की ये परंमपराऐं होती क्या थी ।
कुसुम जोशी मैत्री संस्था ऋषिकेश

 

 

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