

प्रेम पंचोली
कविताएं गाती है, रूलाती भी है और हंसाती भी है। यानि कविताओं में संगीत, स्वर और शब्दो का मायाजाल है। इन दिनों आनलाईन बाजार अमेजन पर परम्परागत कविताओं से अलग समकानीन कविताओं का एक काव्य संकलन ‘इन दिनों के हरे पेड़’ खूब बिक रहा है। पुस्तक पथ प्रकाशन समूह द्वारा प्रकाशित यह कृति वरिष्ठ पत्रकार एवं कवी रमेश कुड़ियाल की है। बता दें कि 102 पृष्टो के इस काव्य संकलन में 62 कविताएं है। हर पाठक की दृष्टी में यहां हर कविता मुद्दा है। अर्थात शिल्प, राग या अन्य काल्पनिक शब्द विन्यास इन कविताअें में न हो, पर कविता समकालीन और मुद्दा आधारित तो है ही।
आमतौर पर यही कहा जाता है कि कवि की पैनी नजर होती है। ऐसा भी कहा जाता है, जहां न जाये रवि वहां जाये कवि। यह हर कवि चरितार्थ करने की भरकस कोशिश भी करता है। कवि, पत्रकार रमेश कुड़ियाल द्वारा रचित ‘इन दिनों के हरे पेड़’ नामक कृति समाज के हर पहलुओं को छूने की कोशिश ही नहीं करती बल्कि उनकी एक एक कविता सहित प्रमाणित बोल रही है। पहली कविता का शिर्षक ‘मां’ है तो अन्तिम कविता का शिर्षक ‘जनता’ है। काव्य संकलन को पढने से महसूस होता है कि मां है तो प्रजा है। प्रजा है तो राजा है। बस इन्ही को माध्यय बनाकर कवि ने मुद्दो को कविता में बुनने की भरसक कोशिश की है।
‘‘इन दिनों के हरे पेड़’’ नामक कविता संकलन नाम से ही मालूम होता है कि यह कवितायें समाज के अन्तिम व्यक्ति की बात कर रही है। विकास में कौन बाधक है उसको काव्यात्मक रूप से बताया जा रहा है। समाज में कुरीतियां कैसे पनप रही है इसे भी कविता के शिल्प में बुना गया है। इस काव्य संकलन में बहुत ही आकर्षक ढंग से मुद्दो को पिरोने की कोशिश की गई है वहीं कविता की हर एक पंक्ति समाज व व्यक्ति के झंझावतो को बताने का सफल प्रयास करती है। यदि हम इन पंक्तियों को अहसास करने की कोशिश करेंगे तो शायद कभी कोई गलती किसी से हो जाये।
हालांकि इन्सानियत की फितरत है कि वह गलती कर बैठता है। किन्तु वही इन्सान गलतियों को बखूबी सुधारता भी है। अर्थात पत्रकार रमेंश कुड़ियाल के इस कविता संकलन की एक एक पंक्ति खबर को बताती है। वे मां के साथ के संस्मरण को लिखते हैं कि –
‘मां ने संभाल रखी थी
वह ‘पाटी’ भी
जिसमें मैने पहली बार
खींची थी टेडी मेडी रेखाएं
लिखे थे कुछ उल्टे सुल्टे अक्षर’ इसी कविता की अन्तिम पंक्ति है कि –
तब भी रखते हैं सहेज कर
अगली पीढी के लिए
भौतिक वस्तुओं से लेकर
संस्कार तक।।
यानि मां के संस्कार ही भविष्य के लिए मजबूत रास्ता अख्तियार करते है। मां के बताये मार्ग के विपरित चलने वाले कभी सफल होंगे यही सवाल है। इसी तरह वे अगली कविता में वैचारिक दृष्टी रखते हुए गांधी को याद करते हैं। लिखते हैं कि –
बचपन से सुनता आ रहा हूं
मजबूरी का नाम महात्मा गांधी
मजबूरी में सही
तुम गांधी का नाम लेते हो
बस यही तुम्हारी मजबूती है।
चाहे कितनी भी हो मजबूरी
गांधी का नाम है जरूरी।।
अर्थात जिस विचार ने देश व दुनियां को एक लोकतांत्रिक मंच दिया हो। जो मरकर के आज भी जिन्दा है। ऐसे ही व्यक्तित्व समाज को बनाता है और समाज को बांटने से रोकता है। कविताओं की श्रृखंला समाज व व्यक्ति से लेकर प्रकृति व संस्कृति से भी जोड़ती है। वे अगली पंक्ति में अखबारनबीसों को रेखांकित करते हैं। –
‘अखबार की कोई जाति
नहीं होती
अखबार में सबकी
खबर होती है।।
अखबार का कोई दल
नहीं होता
अखबार में हर दल की
खबर होती है।।
अखबार में खबर तैयार करने वालों के
सुख, सघर्ष, दर्द नहीं होते।।’
इन 33 पंक्तियो के लगभग 120 शब्दो में कवि ने अखबार और अखबार में काम करने वालो की स्थिति को बखूबी बंयां किया है। यह पंक्तियां जहां नये नये मीडियाकर्मीयों को दिशा देने का काम कर रही है वहीं मीडिया का काम और उसके दाम को भी अहसास कराने के लिए यह कविता काफी है। इससे आगे कवि रूकता नही है और समाज में फैली राजनीतिक वैमनस्य पर प्रहार करते है। कविता कह रही है कि –
‘कोई नही है,
दूध का धुला।
दरअसल
दूध का धुला,
कोई हो ही नही सकता।।
दूध से नहाना तो दूर,
दूध की चाय से भी परहेज करते हैं।
कीचड़ से सने लोग, लेमन टी पीते हैं।।
इन पंक्तियों को पढने से स्पष्ट हो जाता है कि हम लोग भ्रष्टाचार खत्म व राजनीतिक सुचिता की बाते कितनी भी कर ले मगर आज तक स्थितियां बेकाबू हो चुकी है। इसमें सुधार लाने के प्रयास असफल ही रहे हैं। इस स्थिति को और स्पष्टता से पाठको के बीच एक उदाहरण के मार्फत लाने का प्रयास कवि अगली कविता में कर रहे है। जिसके लिए वे पहाड़ में हो रही मोटर दुर्घटना को बता रहे हैं कि –
‘फिर गिरी पहाड़ में
एक बस,
मर गये 25 – 30 लोग।
घनघनाए फोन,
खिंची गई सेल्फी,
फेसबुक पर हो गई अपलोड।
फिर हो गयाएक और हादसा,
बयानबीर फिर बचाव की मुद्र में,
कुछ हमलावार।
सड़क निर्माण का कमीशन,
परसेंट के हिसाब से जेई से लेकर सीएम तक।’
कवि पत्रकार हैं तो उनकी कविता के पात्र विकास, लोग और प्रकृति है। वे अगली कविता में विकास के मायने बता रहे है पहाड़ की आग से।
‘आग के हमले से
बहुत घबराये हुए हैं
इन दिनों हरे पेड़।
आग से ऐसे
नहीं घबराते थे
पहले हरे पेड़,
आग को खुद में समा लेते थे वो।।
और वे कविता की अन्तिम पंक्ति में बता रहे हैं
ये पेड़
नहीं जल रहे,
झुलस रहे हैं
पशु – पक्षी
और आदमी भी,
साजिशों की आग में।।’
जब ऐसा माहौल समाज में दिखाई दे रहा हो तो यह स्थिति भी किसी कारणवश बनी होगी। वे कौन से कारण है। उन कारणो की नर्सरी कहां है। उसी नर्सरी को काव्यात्मक रूप से बताने का प्रयास किया गया है। जैसे –
‘लगाते रहो नारे,
बिछाते रहो दरियां।
टांग दो
पूरे शहर में होर्डिंग,
विज्ञापन से पाट दो अखबार।
करते रहो जनान्दोलन
अपने तर्को से
लहूलुहान कर दो
‘प्रतिपक्ष’ को।।’
यह दौर इसलिए नहीं थम रहा है कि उन्होने समाज को सिर्फ व सिर्फ दोहन की थात समझ रखी है। अगली कविता भी यही बयां कर रही कि –
‘वह फिर फेंकेगा कोई जुमला,
मसलन कहेगा
मैं तुम्हारे बीच का हूं,
मैं भी गरीब था,
मैं भी तुम्हारी जाति का हूं,
मैं भी तुम्हारे धर्म का हूं।।
मैं मजबूत रहूंगा,
मैं ताकतवर रहूंगा,
तो तुम भी ताकतवर,
ऐसे में मुझे फिर दो ताकत।।’
अर्थात समाज में दुश्वारियां इन्ही ताकतवरो ने ही पैदा की है। इस कविता संकलन को पढने में गुस्सा और चिन्ता दोनो साथ साथ चलती है। लगता है कि समाज में फैली कुरीतियों के विरोध में जन समर्थन जुटाया जाये। लेकिन कविता संकलन पाठको को अगली कविता में समाज की एक और मजबूत कड़ी की बात कर रही है। जहां प्रेम के सिवा इन्सान को कुछ भी नजर नहीं आ रहा है। यहां कवि ने दो तरह की कविता प्रस्तुत की है एक है ‘नींद’ और दूसरी है ‘भूख’। दोनो कविताएं प्रेम में मसगूल है।
‘नींद तुम्हारे बिना,
पूरी रात,
अकेले काटना,
कितना मुश्किल होता है,
तुम नहीं जान सकती।।’
इसी तरह –
‘तन की भूख,
और खतरनाक होती है,
वह,
संतो को भी बना देती है बलात्कारी।।’
इसके अलाव कविता संकलन की अन्तिम कविताएं कोरोनाकाल के भयावह स्थिति की याद दिला रही है। वे लिख रहे हैं कि
‘भूखे, पीठ पर कुल कमाई की,
एक गठरी,
और, कन्धो पर छोटे छोटे बच्चे,
थके हुए कदमो से,
बढ रहे हैं,
जिन्दगी के लिए
उसी गांव की ओर,
जिसने दी जिन्दगी।।’
जनता शिर्षक से लिखी गई कविता कह रही है कि
‘आम और खास होने के अन्तर में,
आम जनता का,
सांस लेना भी मुश्किल हो गया है।।’
कुलमिलाकर ‘इन दिनों के हरे पेड़’ कविता संकलन में 62 कविताएं है। यह कविताएं भले ही किसी राग, शिल्प और स्वर को बाहर कर देती हो, मगर कविताएं समाज की सच्चाई को बताने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है। जबकि आम तौर पर अधिकांश काव्य कलात्मक व कल्पनात्मक स्वरूप में शब्दो की बाजीगरी से सजाया जाता है, ऐसी कविताऐं मंचीय हो सकती है। फिलवक्त रमेश कुड़ियाल द्वारा रचित यह काव्य संकलन जिम्मेदारीयों का अहसास करवा रहा है, गलत को गलत बता रहा है, व्यवहार और नियम के अन्तर को बता रहा है, ललकार रहा है कि हमने जो गलती की है उसे सुधारने की तैयारी करो। कह सकते हैं कि यह कविता संकलन समकालीन है और नई कविता का शिल्प है।
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