उत्तराखंडसामाजिक

गाँव का लमथरया आम का पेड़ टूटा, यादों के साथ टूटी जड़ें भी

उत्तराखंड के गाँवों का सामाजिक इतिहास पलायन की कहानी कहता है

देवेन्द्र कुमार बुडाकोटी

उत्तरकाशी।

कई साल पहले की बात है, जब हमारे गाँव का एक आम का पेड़, जिसे हम प्यार से लमथरया कहते थे, तेज़ बारिश और तूफ़ान की मार नहीं झेल पाया और जड़ समेत उखड़ गया। उस पेड़ के गिरने की खबर मुझे भतीजे की फेसबुक पोस्ट से मिली।

लेकिन मेरे लिए लमथरया का उखड़ना सिर्फ़ एक पेड़ का गिरना नहीं था, बल्कि पूरे गाँव के उजड़ने का प्रतीक बन गया। सवाल उठता है—आख़िर ऐसा कौन-सा तूफ़ान था जिसने गाँव के अधिकांश परिवारों को उखाड़ फेंका?

बचपन की यादों से सामाजिक इतिहास तक

लमथरया आम की मिठास आज की पीढ़ी ने शायद कभी नहीं चखी होगी। उनके लिए इसका गिरना शायद कोई मायने न रखे, लेकिन हमारे लिए यह सिर्फ़ पेड़ नहीं, बल्कि बचपन, किशोरावस्था और गाँव के आँगन की अनगिनत स्मृतियों का प्रतीक है।

हमारी पीढ़ी ही वह है जिसने नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों में गाँव की पीड़ा महसूस की और लोकसंगीत के हर सुर में अपनी पहचान खोजी।

पलायन का बढ़ता सिलसिला

उत्तराखंड का सामाजिक इतिहास गाँव-गाँव में झलकता है। स्वतंत्रता के बाद से ही पहाड़ों से तराई और मैदानी इलाकों की ओर पलायन शुरू हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध से लौटे सैनिकों को 1950 के दशक में सरकार ने ज़मीन दी। 60 के दशक में अन्य परिवार भी उनसे जुड़ गए।

70 और 80 के दशक में यह सिलसिला तेज़ हुआ और 90 के दशक तक यह सामान्य प्रवृत्ति बन गया। पहले बाहर जाने का आकर्षण बेहतर रोज़गार और शिक्षा था, लेकिन धीरे-धीरे मजबूरी हावी हो गई—कृषि की घटती आमदनी, शिक्षा और आजीविका के साधनों का अभाव।

सुविधाएँ आईं, लेकिन लोग नहीं रुके

60 के दशक तक गाँवों में सड़क, बिजली और पानी जैसी बुनियादी सुविधाएँ नहीं थीं। बच्चे मीलों पैदल चलकर स्कूल जाते थे। जब तक कुछ सुविधाएँ पहुँचीं, तब तक अधिकांश परिवार गाँव छोड़ चुके थे।

आज खेतों में जंगली जानवर समस्या बने हैं, लेकिन असल समस्या यह है कि खेतों को संभालने वाले लोग ही गाँव में नहीं बचे।

चै गाँव, उत्तराखंड का आईना

हमारा चै गाँव इस सामाजिक बदलाव का आईना है। यहाँ का हाल उत्तराखंड के सैकड़ों गाँवों जैसा है—कई गाँव वीरान हो चुके हैं और कई उजड़ने की कगार पर हैं।

राज्य बनने के दो दशक बाद भी पहाड़ों में असली विकास और समृद्धि अब भी दूर है। 2011 की जनगणना भी यही बताती है कि लोग लगातार मैदानों की ओर पलायन कर रहे हैं।

योजनाकारों और विकास विशेषज्ञों के पास शायद ठोस योजनाएँ होंगी, लेकिन मौजूदा हालात को देखकर लगता है कि हमारा चै गाँव भी जल्द ही उत्तराखंड के “भूतिया गाँवों” की सूची में शामिल हो जाएगा।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button