उत्तराखंडराजनीति

उत्तराखंड में सख्त भू-कानून की जरूरत है

पंडित सीपी जगूड़ी जी उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के मूल निवासी हैं। उन्हें 2012 में 30 साल हिमाचल प्रदेश में पंडिताई करने पूरे हो चुके हैं। उसी साल उनका 200 वर्ग मीटर का चार बिस्वा, अर्थात घर बनाने के लिए जमीन का सपना साकार हुआ। जगूड़ी जी उस जमीन को बाहरी राज्यों के लोगों के लिए 30 साल तक बेच नहीं सकते हैं। जगूड़ी जी के एक बेटा मैनेजर है और दूसरा डॉक्टर। दोनों को हिमाचल में उस चार बिस्वा जमीन के बावजूद स्थाई निवासी का दर्जा नहीं है। क्योंकि पहले मुख्यमंत्री श्री यशवन्त सिंह परमार ने ऐसा भू-कानून बनाया है जो सख्त है। कुछ मुख्यमंत्री और सरकारों ने इस भू-कानून में शिथिलता दर्ज की थी, लेकिन फिर भी पुनः वह परमार के कानून पर आ गए हैं!*

*आइए जानते हैं हिमाचल के भूमि कानून के बारे में!हिमाचल प्रदेश में जमीन खरीदने को लेकर एक कानून है, जिसे टेनेंसी एक्ट कहते हैं। इस एक्ट के सेक्शन 118 के तहत कोई भी गैर हिमाचली व्यक्ति, यानि जिसकी नागरिकता हिमाचल प्रदेश से बाहर की हो, वह इस राज्य में जमीन नहीं खरीद सकता। हालांकि, कुछ विशेष प्रावधानों के तहत इस राज्य में बाहरी लोगों को भी जमीन खरीदने की इजाजत मिलती है। यह टेनेंसी एक्ट, हिमाचल प्रदेश में जमीन की खरीद-बिक्री को नियंत्रित करने का एक प्रयास है. यह कानून उसके प्रदेशवासियों को सुरक्षा देने, आत्मनिर्भर का मकसद रखता है और उनकी ज़मीन को बाहरी निवेशकों से बचाने का प्रयास करता है. इसका मतलब है कि केवल हिमाचल प्रदेश के नागरिकों को अपने प्रदेश में जमीन खरीदने की इजाजत होगी, जबकि गैर हिमाचली व्यक्तियों को यह अवसर नहीं मिलता है।*

*इस नियम को लागू करने का जो मकसद था, वह सफल भी हुआ है, आज हिमाचल बचा हुआ है। वहाँ के सेब के बागान वहीं के लोगों के काम आ रहे हैं। वह बागान दिल्ही , मुंबई, कोलकाता, बंगलुरू के हाथों में बिके नहीं है। जिससे उनकी आर्थिक उन्नति सबके सामने है। हाँ उनके बागान आकर ठेकेदार सेब जरूर खरीद लेते हैं। सेब की पैदावार में हिमाचल कश्मीर की कुछ सालों में बराबरी कर लेगा, इस बात पर विश्वास होने लगता है। गैर हिमाचली,हिमाचल में भूमि में जमीन खरीदने का सपना देखते हैं, तो राज्य सरकार से इजाजत लेना अनिवार्य है। इसके बाद ही हिमाचल में गैर कृषि भूमि खरीद सकते हैं। हिमाचल प्रदेश के टेनेंसी और लैंड रिफॉर्म्स रूल्स 1975, सेक्शन 38A (3) के तहत, राज्य सरकार को जमीन खरीदने के मकसद को बताना होता है।*

*भूमि लेने वाले हिमाचल राज्य सरकार को सही और पूरी जानकारी प्रदान करते हैं। कि, उन्हें किस मकसद से यहां जमीन खरीदने की इच्छा है, सरकार को यह पूरा बताना होता है।राज्य सरकार उनके मकसद को सुनती है और उसे विचार करती है। उसके बाद 500 वर्ग मीटर तक की जमीन खरीदने की परमिशन दी जाती है। वैसे 30 साल से निवास कर रहे गैर हिमाचल के लोगों को रजिस्ट्री कर सकते हैं। यह संख्या पांच हजार लोगों की भी हो जाती है। लेकिन सिर्फ गैर कृषि भूमि! अगर इस राज्य में जमीन खरीदने की इच्छा रखते हैं, तो अन्य उपयोगों के लिए जमीन मिल सकती है। यहां पर्यटन का विकास कर सकते हैं, होटल या अन्य व्यवसाय स्थापित कर सकते हैं, या फिर आत्मनिर्भर और ग्रामीण क्षेत्रों की विकास में मदद कर सकते हैं। हिमाचल प्रदेश में जमीन खरीदने का इस्तेमाल महान स्वप्नों को साकार करने जैसा है।*

*गौर करने लायक बात है कि,उत्तराखंड राज्य की पहली निर्वाचित कांग्रेसी सरकार ने 2002 में भूमि खरीद के लिए गैर उत्तराखंडियों के लिए नियम बनाए थे, कि वे सिर्फ 500 वर्ग मीटर भूमि खरीद सकते हैं। 2007 में बीजेपी सरकार ने इसे घटाकर 250 वर्ग मीटर किया। 2023 में देखें, तो 250 वर्गमीटर बेहतर था। लेकिन 6 अक्टूबर 2018 को बीजेपी सरकार ने एक नया अध्यादेश लाया, जिसके अनुसार उत्तर प्रदेश जमींदारी भूमि विनाश और भूमि सुधार अधिनियम 1950 का संशोधन विधेयक पारित कर उसमें दो धाराएं 148 और 154 जोड़ दी गईं। इसके साथ ही भारत के किसी भी नागरिक का भी अनलिमिटेड ज़मीन खरीदने का रास्ता उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में खुल गया।*

*हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड प्रदेश, दोनों ही प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर राज्य हैं जो वादियों और सुखदायक मौसम के लिए प्रसिद्ध हैं। उत्तराखंड में चार धाम भी हैं। लोग यहां सुकून और प्रकृति के बीच वसंत और शांति का आनंद लेने के लिए आते हैं। इसलिए, इन प्रदेशों में ज़मीन की मांग भी बढ़ चुकी है। इस मांग का उत्तराखंड पूरे आदर के साथ समर्थन करता है। उत्तराखंड में सख्त भू-कानून नहीं है। अब तक उत्तराखंड में ज़मीन बची-खुची ही रह गई है। मलाई तो चाट दी गई है। ज़मीन लेने वालों ने पहाड़ के पहाड़ खरीद दिए हैं। उद्योग के लिए नहीं, मुनाफे के लिए! ऋषिकेश-बद्रीनाथ हाईवे में देवप्रयाग से 20 किमी ऊपर राकेश का एक गांव है जो भरपूर पट्टी में है। गांव की पहाड़ी पर जहां घासियारी भी घास लेने नहीं जा सकती, वह पहाड़ी काफी बिक चुकी है। बदले में गांव के दलीप को एक करोड़ रुपये मिल गए हैं। (नाम बदला हुआ है) औरों को भी मिल रहा है… गांव वालों को खरीदार का पता नहीं है। कुछ लोग उनके यहां पहुँच जाते हैं कि, तुम्हारे खसरे में यह ज़मीन है, आस-पास की पहाड़ियाँ ले ली गई हैं। पटवारी और बीच के लोग इस तरह से घेर देते हैं, उसे ज़मीन बेचनी पड़ती है। और फिर वह ज़मीन खड़ी पहाड़ी पर है, वहां चैन पशु नहीं जा सकते! इस तरह से सभी जिलों के पहाड़ की ज़मीन खरीदने की कहानी हो सकती है। ऐसे मामलों में, अब भी समय है हुक्मरानों के लिए कि उन्हें यह समझना चाहिए कि वे चाहे हिमाचल प्रदेश से दोगुनी 1000 वर्ग मीटर भूमि पर गैर उत्तराखंडियों के लिए कानून बना सकते हैं। ज़मीन की खरीद पर नियंत्रण लागू करके, यहां के लोगों को संरक्षित किया जा सकता है और प्राकृतिक सौंदर्य को सचेत रखा जा सकता है। अब भी इस कानून में इच्छाशक्ति दिखा कर हुक्मरान इतिहास बना सकते हैं!*

शीशपाल गुसाईं

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