

मितेश सेमवाल
देहरादून। उत्तराखंड में बढ़ते हुए भुतहा गांव पर एक चिंतन
बुद्धिजीवियों और समाजसेवियों के बीच में जरूर होना चाहिए उत्तराखंड न सिर्फ एक हिमालई राज्य है और देश की प्रमुख नदियों का उद्गम स्थान भी है बल्कि चीन और नेपाल जैसे देशों से हमारी सीमाएं मिलती हैं और सीमांत राज्य होने के नाते सीमाएं हमेशा आबाद रहनी चाहिए यह देखना सरकार और लोगों का प्रथम कर्तव्य है इन बिरान होते गांव को दोबारा आबाद करने के लिए उत्तराखंड में पहले से मौजूद सेल्फ हेल्प ग्रुप्स और युवक मंगल दल महिला मंगल दल और NGO के कार्यों का सम्मिलित करना हो और उन्हें एक टास्क फोर्स की तरह इस्तेमाल करते हुए नजदीकी बंजर भूमियों को दोबारा आबाद करने के लिए मजबूत किया जा सकता है उत्तराखंड के लगभग हर गांव में फौज वह प्रशासन से रिटायर हुए लोगों की सहायता लेकर उन्हीं के गांव में उनको योजनाओं से जोड़ा जा सकता है हमें अपने गांव में क्लस्टर आधारित खेती विकसित करने की जरूरत है और यह काम सिर्फ समझदारी से हो सकता है आज हर गांव में वह ब्लॉक में मौजूद कृषि भूमि जो कि अब बंजर हो चुकी है उसका भी अभिलेख प्रतिवर्ष बने और उसे सार्वजनिक किया जाए ताकि जो संस्थाएं क्षेत्र में कार्य कर रही है और करना चाहती हैं उन्हें यह पता लग सके कौन से क्षेत्रों में अधिक कार्य करने की जरूरत है कृषि क्षेत्र में पिछले 5 सालों में एक उद्यमी के रूप में कार्य करते हुए मैंने यह भी महसूस किया है हमने यह महसूस किया है कि उत्तराखंड में हिमालई क्षेत्रों में प्रति नाली एक किसान किस फसल से कितना कमाता है उसका ब्यौरा हमारे पास होना चाहिए ताकि एक पहाड़ी किसान की वास्तविक मासिक फसल फसल के आधारित और सालाना आमदनी का पता चल सके इसके साथ साथ आज भी हमारी अधिकांश फसलों का बीमा और इंश्योरेंस नहीं होता है इसके लिए एक मजबूत पहल किए जाने की आवश्यकता है हर गांव में उपलब्ध भूमि को सिंचित व असिंचित व वर्षा जल से सिंचित इस तरीके के ब्योरे बनाकर तैयार किया जाना चाहिए यदि कोई संस्था बंजर भूमि पर को लेकर प्लास्टर आधारित खेती करना चाहती है तो वह उस जमीन के मालिकों से एक न्यूनतम किराया लेकर उस पर खेती कर सके और इस तरीके से नवाचार या किसी के क्षेत्र में ज्यादा स्टार्टअप्स उत्तराखंड में आएंगे इस प्रकार के कार्यों की तहसील स्तर पर एडीएम स्तर पर डायरेक्ट मॉनिटरिंग हो सकती है ताकि किसान के साथ किसी किस्म की धोखाधड़ी ना हो