संस्मरण
_डाअतुल शर्मा
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये….
महान रचनाकार दुश्यंत कुमार की आज पुण्य तिथि है । नमन ।
यह पंक्तियां कौन नही जानता_
” हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये ”
इन अमर पत्तियों के लेखक ने शायरी को अवाम की आवाज बनादिया ।उनका संग्रह ” साये मे धूप ” को लगातार पढता रहा हूं । चाहे वह आपात्काल हो चाहे कोई भी स्थिति ।वह आज के हर उतार चढाव को व्यक्त करती है ।
जैसे_” न हो कमीज़ तो पावों से पेट ढक लेगे
ये लोग कितने मुनासिब है इस सफर के लिये ” । यह व्यंग है ।
ऐसे ही एक और रचना है_
” वो आदमी नही है मुमम्मल बयान है
माथे पे जिसके चोट का गहरा निशान है । ”
दुश्यंत कुमार की रचनाए तो आज जरुरी सी लगने लगती है । आम व्यक्ति का बयान सी लगती है ।
यह भी_” जिसे मै ओढता बिछाता हूं / वो गज़ल आपको सुनाता हूं ।”
इस पंक्ति ने साहित्य मे नयी बयार ला दी थी_” यहां दरख्तो के साये मे धूप लगती है/ चलो यहां से कहीं और उम्र भर के लिये ।”
और यह भी कि_” जिये तो अपने गुलमोहर के तले/ मरे तो गैर की गलियों मे गुलमोहर के लिये ”
दुश्यंत कुमार की रचनाये पढने और उन्हे जीने मे अपने होने का अहसास होता है ।
आज साहित्य मे भले ही बहुत अच्छा लिखा जा रहा है पर जो जुबान पर चढकर बोले वह कम ही होते है ।रोज काम आते है । जैसे कबीर ।
तो आज दुश्यंत कुमार की गज़लों को पढकर और सुना कर हम उन्हे उनकी पुण्य तिथि पर हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।
मेरा सौभाग्य है कि मै इस महान रचनाकार से मिला हूं और उनकी रचनाये उन्ही से सुनी भी है ।