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प्रत्येक मेडिकल काॅलेज में हो रेडियोथेरेपी विभाग, 50 प्रतिशत कम हैं लीनियर एक्सीलेटर मशीनें

एम्स ऋषिकेश : प्रत्येक कैंसर जानलेवा नहीं होता है। सही समय पर यदि इसकी पहचान करके उचित इलाज शुरू कर दिया जाए तो इसे बढ़ने से रोका जा सकता है। जरूरत है तो कैंसर के लक्षणों के प्रति जागरूक रहने, समय पर इलाज शुरू करने और उपचार से संबंधित संसाधनों को विकसित करने की।

एसोसिएशन ऑफ रेडिएशन ऑन्कोलाॅजिस्ट ऑफ इन्डिया के अध्यक्ष और एम्स ऋषिकेश में रेडिएशन ऑन्कोलाॅजी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर मनोज गुप्ता ने विश्व कैंसर दिवस के उपलक्ष्य में जनसामान्य में विभिन्न लाभप्रद जानकारियां साझा की। उन्होंने बताया इस बार की थीम ’क्लोज द केयर गैप’ रखी गई है। इसका तात्पर्य है कि मरीज के नियमित इलाज हेतु मरीज और अस्पताल के बीच के गैप को कम से कम किया जा सके। लेकिन यह तभी संभव होगा जब कैंसर सेंटर नजदीक हों और रेडियोथेरेपी हेतु उपयोग की जाने वाली लीनियर एक्सीलेटर मशीन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों।

प्रो. गुप्ता ने कहा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति 10 लाख की आबादी पर एक लीनियर एक्सीलेटर मशीन होनी चाहिए। इसके अनुसार देश की 1400 मिलियन आबादी के अनुरूप भारत में 1400 लीनियर एक्सीलेटर होने चाहिंए। जबकि वर्तमान में इनकी संख्या मात्र 700 ही है।
यहां काबिलेगौर यह है कि कैंसर के मरीजों में 70-80 प्रतिशत मरीजों को रेडियोथेरेपी की जरूरत होती है। ’क्लोज द केयर गैप’ की थीम तभी सफल होगी जब कैंसर से जूझ रहे मरीजों की रेडियोथेरेपी के लिए यह मशीनें पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हों।

मशीन नहीं होने से नुकसान-
लीनिलयर एक्सीलेटर मशीनें कम होने से इसका खामियाजा देश के उन गरीब कैंसर रोगियों को भुगतना पड़ता है, जो इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों पर ही निर्भर हैं और जिनके पास रेडियोथेरेपी के अलावा इलाज का कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
डाॅ. मनोज गुप्ता ने बताया कि हमारे देश में कैंसर के इलाज के लिए बनाए गए कैंसर सेन्टर कम होने से इनकी आपस में दूरी बहुत अधिक है। ऐसे में मरीज को कैंसर केन्द्र तक पहुंचने में लम्बा समय लग जाता है। कुछ मामलों में कैंसर का इलाज वैसे भी सालभर तक चलता है। जहां तक लीनियर एक्सीलेटर मशीनों की बात है तो देशभर में उपलब्ध 700 में से 50 प्रतिशत मशीनें निजी क्षेत्र के अस्पतालों में हैं। तात्पर्य यह कि देश के सभी सरकारी अस्पतालों में वर्तमान में मात्र 350 के लगभग लीनियर एक्सीलेटर मशीनें ही उपलब्ध हैं।

राज्य के मात्र एक मेडिकल काॅलेज में है रेडियोथेरेपी विभाग-
यह भी एक विडम्बना है कि उत्तराखंड के सभी 5 राजकीय मेडिकल काॅलेजों में से मात्र सुशीला तिवारी मेडिकल काॅलेज, हल्द्वानी में भी रेडियोथेरेपी विभाग संचालित हो रहा है। शेष अन्य 4 मेडिकल काॅलेजों में लीनियर एक्सीलेटर मशीन मौजूद नहीं है। इस कमी से उत्तराखंड में भी कैंसर पीड़ित मरीज को निजी अस्पतालों के महंगे इलाज पर ही रेडियो थेरेपी कराने को मजबूर होना पड़ता है।
डाॅ. गुप्ता ने बताया कि प्रधानमंत्री के विजन के अनुरूप देश के प्रत्येक जिलों में एक मेडिकल काॅलेज खोले जाने की योजना है। इसलिए यदि प्रत्येक मेडिकल काॅलेज में रेडियोथेरेपी विभाग संचालित किया जाए तो ’क्लोज द केयर गैप’ को सरलता से भरा जा सकता है। लीनियर एक्सीलेटर मशीनों की कमी के चलते कैंसर मरीजों को समय पर उपचार नहीं मिल पाता है। उन्होंने कहा कि कैंसर की जांच, इलाज और कीमोथेरेपी से इसके निदान के लिए देश के प्रत्येक मेडिकल कॉलेज में रेडियो थेरेपी ट्रीटमेंट संबंधी पाठ्यक्रम अनिवार्य रूप से लागू होना चाहिए।

उत्तराखंड में बढ़ रहे ब्लाडर कैंसर के मामले
ऋषिकेश। राज्य में यूरीन ब्लाडर कैंसर के मामलों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। एम्स के यूरोलाॅजी विभाग के हेड और यूरोलाॅजिस्ट डाॅ. अंकुर मित्तल ने बताया कि विभाग की ओपीडी में यूरोलोजाॅजिकल कैंसर की शिकायत वाले मरीजों में 50 प्रतिशत रोग ब्लाडर कैंसर की शिकायत लेकर आते हैं। ऐसे मरीजों में 40 वर्ष की उम्र तक के मरीज भी शामिल हैं। उन्होंने इसके पीछे राज्य का मौसम, पानी में केमिकल को होना और लोगों का धूम्रपान व हुक्के का अधिक सेवन करना जैसे प्रमुख कारण बताया। विभाग के यूरोलाॅजिस्ट डाॅ. विकास पंवार ने बताया कि जिनायटो यूरोलाॅजी कैंसर में किडनी, यूरीनरी ब्लाडर, प्रोस्टेट, पेनिस और टेटिस आदि अंगों में कैंसर उभर सकता है। ऐसे मरीजों के इलाज के लिए यूरोऑन्कोलाॅजिस्ट ओपीडी में मरीज को देखने के बाद रेडिएशन ऑन्कोलाॅजिस्ट और मेडिकल ऑन्कोलाॅजिस्ट विशेषज्ञ चिकित्सकों के साथ संयुक्त टीम बनाकर तय करते हैं कि मरीज के इलाज के लिए सर्जरी, कीमोथेरेपी और रेडिएशन में से कौन सी विधि अपनाई जाए।

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