रमेश कुडियाल
देहरादून। कथाऐं कभी अधूरी नहीं रहती। वह तमाम प्रस्तुतियों के बावजूद सम्पन्न हो जाती है। कथाऐं भले संपन्न हो जाती है पर कभी एसे भी क्षण भी आता है कि व्यासपीठ पर कथावक्ता बदल जाते हैं एसा ही दुर्भागय तब सामने आया जब प्रसिद्ध कथा वक्ता शान्तिभाई मानसप्रेमी जब कथा पूरी किये बिना ही अन्नत यात्रा पर चले गये। शान्तिभाई मानसप्रेमी अपने नाम के अनुरूप शान्त एवं मानव जगत के कल्याण की भावना रखने वाले व्यक्ति थे। उतरकाशी से सटे मांडौ निवासी शान्तिभाई मानसप्रेमी से मेरी मुलाकात तब हुई जब वह संस्क्रत महाविद्यालय के छात्र संघ अध्यक्ष थे मैं भी तब पीजी कांलेज छात्र संघ का महसचिव था 1985 से शुरू हुई यह दोस्ती अनवरत चलती रही। हम दोनों ने कई आंदोलनों में एकसाथ शिरकत की। उतराखंड राज्य आंदोलन में भी हम साथ साथ रहे। बाद के वर्षों में राजनीतिक तौर पर हम भले ही अलग अलग विचारधारा के साथ रहे लेकिन हमारी दोस्ती अटूट रही। जीवन के सैर में जहां शान्तिभाई ने आध्यात्म का रास्ता अपनाया वहीं मैने पत्रकारिता को। हमने कई बार उनकी कथाओं को भी कवरेज किया मैनें देखा कि कई बड़े लोग भी शान्तिभाई के चरणों में शीष झुकाकर अशिष लेते थे वहीं उनका बड़प्पन देखिए कि वह मेरे छोटे होने के बावजूद हमेशा मेरे ही पैर छूकर प्रनाम करते थे। उनका अक्सर देहरादून आने पर मेरे घर भी आना होता था। शान्तिभाई के साथ मेरे हजारों संस्मरण हैं। लेकिन उनसे आखीरी भेंट मार्च में तब हुई थी जब मैरा बेटा सार्थक जिला अस्पताल उतरकाशी में कोरोना से जंग लड़ रहा था तब शान्तिभाई ने विश्वनाथ मंदिर में सार्थक के स्वस्थय होने के लिए यज्ञ किया था तब उनहोनें यज्ञ के आखिरी दीन आहुति डालने के लिए मुझे भी बुलाया था उन्होंने ही सारी व्यवस्था की थी। दक्षिणा लेने के बजाये उन्होंने मुझे ही धोती कुर्ता भेंट किया था। यज्ञ समापन के बाद मैं उनकी कार से ही देहरादून आया था। कुछ किमी तक मैंने ही उनकी कार चलाई थी। देहरादून पहुंचने पर वह मथुरावाला और में बंजारावाला आया, यही उनके साथ आखिरी मुलाकात थी हालांकी मोबाइल पर उनसे बातचीत होती रहती थी।
इस बार उनकी देहरादून में कथा थी और यह पहली बार हुआ की उन्होंने मुझे इसकी जानकारी नहीं दी। फेसबुक के माध्यम से पता चला की मेरा यह प्रिया दोस्त कथा पूरी किये बिना अन्नत यात्रा पर निकल पड़ा ईश्वर मेरे इस प्रिय दोस्त को अपने श्री चरणों में स्थान दे।