देहरादून। पर्यावरण की सीख लेनी है तो शुकरी गांव पहुंचिए। यह गांव टिहरी गढ़वाल के विकास खंड प्रतापनगर में आता है। 80 परिवार यहां रहते हैं। चारों तरफ हरियाली और घना जंगल है। जब पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रदेश में कोई जागरूकता कार्यक्रम भी नहीं होते थे तब भी यहां के ग्रामीण पर्यावरण के प्रति बेहद सचेत थे। जंगल का अवैध दोहन रोकने के लिए इन्होंने नायब तरीका अपनाया। चारा पत्ती और लकड़ी लाने के लिए सालभर में कुछ दिन नियत किए गए हैं। उस पर भी कोई परिवार का सदस्य निश्चित मात्रा से अधिक न लकड़ी ला सकता है और न चारा पत्ती। जंगल के किनारे और गांव की सीमा पर लगे बड़े तराजू पर पत्ती और लकड़ी को तौला जाता है। अधिक मात्रा पाए जाने पर उसे तराजू से हटा कर शाम को नीलाम किया जाता है। इससे मिलने वाली राशि को जंगल के संरक्षण और संवर्द्धन पर खर्च किया जाता है।
गांव के सामाजिक कार्यकर्ता शोदन कुडि़याल ने बताया कि करीब सौ वर्ष पहले गांव में चारा पत्ती और जलावनि लकड़ी की बहुत दिक्कत थी। इससे राहत के लिए तत्कालीन ग्रामीणों ने बांझ और बुरांश के पौधे रोपे। आज गांव के चारों तरफ हरा भरा जंगल है। पर्यावरण संरक्षण के लिए हमारे बुजुर्गों ने जो नियम बनाए थे वह आज भी बरकरार हैं। जंगल का कोई ग्रामीण अवैध दोहन न करे इसके लिए ग्रामीण वन चौकीदार नियुक्त करते हैं। उसका मानदेय ग्रामीण मिलकर देते हैं। प्रत्येक परिवार मानदेय देने के लिए आठ सौ रुपये सालाना एकत्रित करते हैं। चारा पत्ती और लकड़ी के लिए आवश्यकतानुसार जंगल को खोला जाता है। हालांकि पलायन होने और प्रत्येक परिवार में रसोई गैस होने से जंगल पर अब निर्भरता कम हो गई है।
ग्रामीण प्रभु सेमवाल और दरवेश्वर कुडि़याल ने बताया कि इसके अलावा गांव की महिलाओं को काम के बोझ से मुक्त रखने के लिए रविवार को खेती बाड़ी और जंगल के काम से मुक्त रखा जाता है। उस दिन वह घर की साफ सफाई और बच्चों की देखभाल में रहती हैं। रविवार को महिलाओं का अवकाश रखने वाला यह प्रदेश का पहले गांव है। यह व्यवस्था गांव में सात दशक से अधिक समय से बनी हुई है।