उत्तराखंडराजनीति

मुजफ्फरनगर कांड: इस रात की सुबह नहीं

प्रसिद्ध आंदोलनकारी पी सी. तिवारी की रिपोर्ट

27 वर्ष पूर्व गांधी जी की जयंती पर उत्तराखंड राज्य आंदोलन को कुचलने के लिए मुलायम सिंह सरकार एवं केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने मुजफ्फरनगर में जो बर्बर ज़ुल्म ढाये वह भारतीय लोकतंत्र में काले अध्याय के रूप में दर्ज़ है। तात्कालिक उत्तरप्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों व देश के तमाम भागों से अलग राज्य की मांग को लेकर दिल्ली जा रहे प्रदर्शनकारियों का सोची समझी रणनीति से मुजफ्फरनगर में बर्बर दमन किया गया, कानून के रखवाले कहे जाने पुलिस कर्मियों ने महिलाओं का बलात्कार किया, निर्दोष लोगों पर गोलियां चलाई गई उन पर झूठे मुक़दमे बनाए गए, जिसमें मुजफ्फरनगर में आठ लोग शहीद हुए। पुलिस व सरकार की इस कार्यवाही से उत्तराखंड ही नहीं बल्कि पूरा देश स्तब्ध था। इस घटना की खबर जब दिल्ली के लाल किले में पहुंच रहे लाखों उत्तराखण्डियों तक पहुंची तो उनका आक्रोश स्वाभाविक था जिसको कुचलने के लिए दिल्ली में आंसू गैस के गोले छोड़े गए, लाठी चार्ज किया और सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार भी किया गया। इस तरह 42 शहादातों और लंबी लड़ाई के बाद एक आधा अधूरा उत्तराखंड हमें प्राप्त हुआ। उत्तराखंड राज्य को बने अब 21 वर्ष हो गए हैं लेकिन मुजफ्फरनगर के इस वीभत्स कांड के खलनायकों को आज तक दंडित नहीं किया जा सका। अपने राजनीतिक आकाओं के संरक्षण में लोकतंत्र को कलंकित करने वाले तात्कालिक जिलाधिकारी मुजफ्फरनगर अनंत कुमार एवं तात्कालिक डीआईजी बुआ सिंह का बाल भी बांका नहीं हुआ। इन लोगों को भाजपा, कांग्रेस व सपा के वरिष्ठ नेताओं के संरक्षण में ऊंचे पदों में बैठाकर सम्मानित किया। उत्तराखंड की आत्मा व यहां के संवेदनशील आंदोलनकारी आज भी इन ज़ख्मों से उभर नहीं पा रहे हैं।

दुःख की बात है कि 21 वर्षों तक सत्ता का सुख भोगने वाली उत्तराखंड की सभी सरकारें मुजफ्फरनगर कांड को लेकर ज़ुबानी जमा ख़र्च करती रहीं। लेकिन इन सरकारों को ना शहीदों के सपनों की चिंता है और ना ही अपमानित उत्तराखण्डियों के घावों पर मरहम लगाने की। इन सरकारों ने राज्य की अवधारणा को साकार करने के लिए आवश्यक नीतियां बनाने के बदले कुछ लोगों को राज्य आंदोलनकारी का तमगा बांट कर जनांदोलन को भटकाने की कोशिश की। इसलिए जहां इस आंदोलन में शामिल छात्र, युवा, महिलाएं, कर्मचारी, अधिवक्ता व आम लोग अपने को ठगा हुए महसूस करते हैं वहीं कथित राज्य आंदोलनकारियों का एक बड़ा वर्ग एक बेहतर राज्य के लिए लड़ने के बदले अपनी पेंशन व सुविधाएं बढ़ाने की चिंता तक सीमित हो गया है।

उत्तराखंड राज्य आज पहले से अधिक बदहाल और खोखला है। यहां के प्राकृतिक संसाधनों, जल, जंगल, ज़मीन, नदियों की लूट हुई है और उन पर पूंजीपतियों/ माफियाओं का कब्ज़ा है। पूंजीपतियों, माफियाओं, नौकरशाहों व राजनेताओं के नापाक गठजोड़ ने देहरादून में गैरकानूनी रूप से अस्थाई राजधानी के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपयों का घोटाला किया है।

ढेंचा बीज घोटाले के ईमानदार मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने कृषि भूमि की असीमित लूट का कानून बनाया और हरीश रावत ने उन्हें क्लीन चिट दी और आज फिर चुनाव से पहले ये सब जनता के हितैषी बनने, विकास का वाहक होने, गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने व सारी ज़मीन लुटा कर सशक्त भू कानून बनाने का चोला ओढ़कर जनता को भ्रमित कर रहे हैं। वे भूल गए हैं कि 21 वर्षों के उनके राज में पर्वतीय क्षेत्रों की आजीविका का आधार, रोज़गार देने वाली भूमि उन्होंने लुटा दी है।

स्वास्थ्य सेवाएं आयुष्मान कार्ड व गोल्डन कार्ड की मृगमरीचिका में फंस गई हैं। प्रवासी/ मूल निवासी व युवा बेरोज़गारी से त्रस्त हैं उन्हें भटकाने के लिए नशे का कारोबार है। शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थाई रोज़गार की जगह ठेकों की कुछ नौकरियां हैं। ऐसे में मुजफ्फरनगर व उत्तराखंड के शहीदों को यदि उनके मक़सद के साथ याद कर तार- तार हो रही उत्तराखंडी अस्मिता की रक्षा के लिए राज्य में एक सशक्त, वैचारिक व राजनीतिक आंदोलन तत्काल खड़ा नहीं किया गया तो बहुत देर हो जाएगी। आपका क्या विचार है?

 

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button