उत्तराखंडराजनीति

राज्य स्थापना दिवस: संघर्ष देखा, लेकिन उल्लास नहीं दिखता

उत्तराखंड राज्य की स्थापना दिवस पर क्या खोया क्या पायाका मनन करना जरूरी

डा. मधु थपलियाल
देहरादून। किसी भी व्यक्ति के लिए आन्दोलनों की तपिश में पलकर बड़ा होना निश्चित रूप से उसके जीवन को एक अलग तरीके से आगे बढ़ता है. ऐसा हे कुछ अनुभव रहा. अगर उत्तराखंड राज्य की बात करूं तो जहाँ तक याद आता है इतिहास के पन्ने बताते है कि राज्य प्राप्ति की बात सन १९६० से शुरू हो गयी थी जब कामरेड पी० सी० जोशी ने उत्तराखंड के पर्वतीय भौगोलिक स्थिति को देखते हुए उसे अलग राज्य बताने की मांग की थी. क्योंकि तब राज्य उत्तर प्रदेश में था और उत्तर प्रदेश क्षेत्रफल के हिसाब से एक बहुत बड़ा राज्य था और पहाडी क्षेत्र का विकास गति नहीं पकड़ रहा था इसलिए अलग राज्य की मांग कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा उठाई गयी.

क्योंकि मैं भी एक ऐसे ही वातावरण में पैदा हुई, बड़ी हुई, हर दिन आंदोलनों को होते देखा, कभी वन आन्दोलन, कभी सड़क आन्दोलन, कभी अस्पताल के लिए आन्दोलन, कभी स्कूल-कालेज के लिए आन्दोलन, कभी गरीब मजलूमों की आवाज को उठाने के लिए आन्दोलन, और निश्चित रूप से ऐसे आन्दोलनों की तपिश में पलकर बड़ा होना – ये मुझे एक अलग तरीके से मेरे मानसिक पटल को अलग तरीके से प्रभावित किया.

…….. तो ये सपने थे
क्योंकि हमारे पहाड़ जो कि प्राकिर्तिक स्रोतों का भंडार हैं – नदी – जंगल – जमीन – निश्चित रूप से अलग राज्य बनने पर ये देश का बहुत हे संपन्न राज्य बन जायेगा – हर व्यक्ति खुश हाल जीवन जीयेगा – रोजगार की कमी नहीं होगी – हरे लहलहाते खेत – ऊँची नीची पहाड़ियां – सड़कें – एक अलग तरीके का सपना था…..
बहुत आन्दोलन हुए – बहुत सरे रैलियों का एवं आन्दोलनों का मैं खुद भी हिस्सा रही – हालाँकि तब उम्र बहुत ही कम थी – यहाँ तक कि मुज़फ्फरनगर काण्ड के दो दिन पहले – २ अक्तूबर को जो रैली दिल्ली में होनी थी – उसका भी मैं हिस्सा रही – आंसू गैस के गोलों के बीच लाठी डंडे खाये – जब पता चला कि रात मुज़फ्फरनगर काण्ड में कई बसों में सवार लोगों पर किस तरह की घिनोनी हरकत उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा की गयी – बसों पर हमले करवाए गए – गोलियां चलवा दी गयी – गन्ने के खेतों में किस तरह हमारी माताओं – बहनों की आबरू लूटी गयी – उस रैली का भी मैं हिस्सा रही.

जब दिल्ली के रामलीला मैदान में उत्तराखंड राज्य की रैली हुई – उसमें उत्तराखंड राज्य के लाखों की संख्या में पहुँचे लोग एकत्रित हुए – काशी सिंह ऐरी – इन्द्रमणि बडोनी – कामरेड कमला राम नौटियाल, और भी बहुत सारे नेता मंच पर थे एवं सभा को संबोधित करने वाले थे. इस बीच उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार सुरेश नौटियाल भीड़ के बीच में मेरे पास आये और कहा कि मधु – मंच पर चलो – उत्तराखंड की महिलाओं की और से आपको रैली को संबोधित करना है. सभी आन्दोलनकारियों में अद्भुत उत्साह था – वो भी उत्तराखंड राज्य की लड़ाई का हिस्सा होने पर गौरवान्वित थे. तभी एक पत्थर काशी सिंह ऐरी जी के सर पर लगा – और फिर पूरी भीड़ उथल पुथल हो जाती है – लाल किले के झरोखों में फायरिंग शुरू हो जाती है. एस आंसू गैस का गोला मेरे करीब भी गिरता है – और भगदड़ मच जाती है.

खबर आती है कि मुज़फ्फरनगर में मुलायम सिंह सरकार ने गोलियाँ चलवा दी हैं और वहां एक बड़ा गोली काण्ड हो गया है. कई लोग मर चुके है – शहीद हो चुके हैं – जिसमें हमारा एक साथी – एवं सहपाठी – राजेश नेगी का भी नाम था.

दिल्ली के राम लीला मैदान के भगदड़ एवं मुज़फ्फरनगर के घटना – – दोनों ही घटनाक्रम एक साथ हुए. दिल्ली के राम लीला मैदान में तैनात घुड़सवार पुलिस को भी हमने पहले बार ही देखा था क्योंकि पहाड़ों पर ये पुलिस दस्ता कम ही दिखता है. ये नज़ारा कुछ ऐसा ही था जैसा के हम हिंदी फिल्मों में देखते है – जिसमें देश की आजादी के दौरान स्वतंत्रता आन्दोलनकारियों पर अंग्रेजों की बर्बरता को दिखाया जाता है. किसी तरह से – भागते – दौड़ते हम सुरक्षित स्थान पर पहुंचे.

अगले दिन – जब हम वापसी में रामपुर तिराहे पर पहुचे – तो नेताओं का मजमा था – कांग्रेस के नेता अशोक गहलोत जो तब कपड़ा मंत्री हुआ करते थे – को कार के ऊपर चढ़े हुए थे तथा उनके चारों तरफ लोग से घिरे थे. गिरिजा व्यास के प्रेस कांफ्रेंस चल रही थी और में दुस्साहस करके उस प्रेस कांफ्रेंस में घुस गयी – कि मुझे भी सवाल पूछने हैं इन नेताओं से. मायावती को एक कमरे में बंद कर दिया गया था – क्योंकि उग्र भीड़ उनको मरने को तैयार थी.

इसके बाद भी मैं कई आन्दोलनों का हिस्सा रही – जैसे कि पौड़ी में एक बहुत बड़ी रैली हुई – उत्तराखंड राज्य के लिए – तमाम सरे छोटे बड़े बच्चों की वानर सेना – स्कूल – कॉलेज के छात्र शामिल थे. इन सब रैलीयों का हिस्सा होना खुद में एक सौभाग्य लगता है जब आप एक राज्य प्राप्ति के आन्दोलन का हिस्सा होते हैं.

यही नहीं – खटीमा गोली काण्ड – बताघाट – मसूरी गोली काण्ड और ना जाने कितने लोग गोलियों की बलि चढ़े और शहीद हुए इस राज्य के लिए.

लेकिन आज – राज्य प्राप्ति के लगभग २० वर्षों के बाद – हम कहाँ खड़े हैं? आज जब उन पहाड़ों को जाकर देखते हैं तो कई जगह यह पता चलता है कि ये पूरा पहाड़ का पहाड़ किसी ने खरीद लिया है – सिर्फ इसलिए कि पहाड़ का आदमी गरीब है और वो मजबूर है अपने घरों को बेचने के लिए – क्या कोई आवाज़ है इन पहाड़ों में ? या वो सब आवाजें उस राज्य को दिलवाने के साथ ही दफ्न हो गयी? – मर गयी? – गोलियों की भेंट चढ़ गयी?

राजधानी को अगर देखे तो लगता है कि पूरा उत्तराखंड देहरादून में समां गया है. और जब राजधानी से निकल कर पहाडी क्षेत्रों में जाओ तो लगता है कि ये पहाड़ तो वही खड़े हैं – और ठगे से रह गए हैं, बस – चुनावी दौरान पहाड़ों को ये बताया जाता है कि तुम भी उत्तराखंड के भाग हो.

अलग अलग तंत्र के अगर हम बात करें – तो कई बार बहुत जादा आश्चर्यचकित और स्तब्ध करने वाली घटनाएँ सामने आती हैं. आज राज्य प्राप्ति कि इतने वर्षों बाद राज्य स्थापना दिवस जिस प्रकार से इतने हर्षोल्लास के साथ पूरे राज्य में मनाया जाना चहिये था, वो चीज़ जनता के बीच नहीं दिखती है – हालांकि बहुत सरे पर्व आते हैं – उनमें छुट्टी भी हो जाती है – कई चीज़ें होते हैं लेकिन आज के दिन तक राज्य स्थापना दिवस मैंने देखा नहीं कि किस उल्लास के साथ किस रूप में मनाया जायेगा.

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