उत्तराखंड

कला दीर्घा, अंतरराष्ट्रीय दृश्यकला पत्रिका एवं गुरुकुल, कला वीथिका, कानपुर का सह आयोजन

कला दीर्घा अंतर्राष्ट्रीय दृश्य कला पत्रिका एवं गुरुकुल कला वीथिका कानपुर के सहआयोजन के रूप में आयोजित अलीगढ़ के युवा कलाकार सुमित कुमार की मड़ई प्रदर्शनी का आज गुरुकुल कला वीथिका में वरिष्ठ रंगकर्मी राधेश्याम दीक्षित ने दीप प्रज्ज्वलित कर उद्घाटन किया। उद्घाटन सत्र में सुमित कुमार के नवीनतम कामों पर आधारित पुस्तिका का अतिथियों द्वारा विमोचन किया गया।

प्रदर्शनी का अवलोकन करते हुए मुख्य अतिथि राधेश्याम दीक्षित ने कहा कि ये काम शब्दचित्र हैं। जो कुछ हम लोगों ने अपने बचपन और जीवन में जिया है और कमोवेश उसे भूल भी रहे थे, उसे चित्रों के माध्यम से सुमित कुमार ने जीवंत कर दिया है। एक पल को हम लोग अपने बचपन और उस दुनिया में खो गए, जहां से होते हुए हम लोग कला की दुनिया में आए थे।

प्रदर्शनी के उद्घाटन अवसर पर सुमित कुमार ने अंग वस्त्र और बाल वृक्ष देकर मुख्य अतिथि राधेश्याम दीक्षित, गुरुकुल के कुलगुरु आचार्य अभय द्विवेदी कलाचार्य एवं कलादीर्घा पत्रिका के संपादक डॉ अवधेश मिश्र, प्रदर्शनी की क्यूरेटर डॉ लीना मिश्र को सम्मानित किया और कहा कि मैंने अपने गुरु डॉ अवधेश मिश्र के सानिध्य में उनके कला के प्रति समर्पण, शिष्यों को आगे बढ़ाने की तत्परता और उनके स्वयं के कलाकार के रूप में तमाम विशिष्टताओं को आत्मसात किया है जो इन कलाकृतियों के रूप में आपके समक्ष हैं। कानपुर के वरिष्ठ कलाकार डॉ हृदय गुप्ता ने कहा कि सुमित एक ऊर्जावान, मृदुभाषी कलाकार हैं और जो संवेदनशीलता उनके व्यक्तित्व में है, वही उनकी कला में दिखती है।

प्रदर्शनी की समन्वयक डॉ अनीता वर्मा ने कहा कि मैंने विद्यार्थी जीवन से ही सुमित को देखा है। चित्रण, प्रदर्शन एवं समन्वयन सबमें सुमित की बराबर की रुचि और समर्पण है। यही इनको इनके समकालीनों से अलग करता है। प्रदर्शनी में रणधीर सिंह, दीपा पाठक, डॉ मिठाई लाल, अजय पाठक, अभिषेक पाठक, गोपाल खन्ना, नीतू साहू, प्रशांत, नेहा मिश्रा, अभिनय प्रकाश सिंह, अध्यात्म शिवम झा, राधेश्याम पांडे इत्यादि कानपुर नगर के अनेक कला प्रेमी उपस्थित थे। आचार्य अभय द्विवेदी ने बताया कि यह प्रदर्शनी कला प्रेमियों के लिए अगले तीन दिनों तक खुली रहेगी।

सुमित कुमार की प्रदर्शनी की विषयवस्तु और चिंतन पर बात करते हुए डॉ लीना मिश्र ने बताया कि प्रदर्शनी की क्यूरेटर डॉ लीना मिश्र ने कहा कि सुमित कुमार का कला और अपने गुरु के प्रति समर्पण तथा कर्तव्यनिष्ठा इनको कम उम्र में बहुत आगे ले गई है। उनके काम में सातत्य है, अभी इन्हें बहुत दूर जाना है। इनके चित्रों के विषय कला रसिकों के दिल से जुड़ते हैं। भारत की ग्रामीण संस्कृति में ख़ास-ओ-आम को आश्रय देती ‘मड़ई’, घास फूस से बनी और छायी गयी एक छत ही नहीं होती, बल्कि यह पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन का एक महत्त्वपूर्ण कोना और भावनात्मक एवं सांस्कृतिक संरक्षा-सुरक्षा कवच होती है।

यहीं हमारा जीवन और संस्कार गढ़े जाते हैं, यहीं पीढ़ियों से बुनी संस्कृति के धागे और उत्स के पते मिलते हैं। ‘मड़ई’ न केवल ग्रामीण जीवन के पारम्परिक शिल्प का प्रतीक है, बल्कि यह हमारे पूर्वजों की कार्यकुशलता, संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग और पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का भी प्रतीक है। इसे ग्राम्य जीवन में आमतौर पर ‘छप्पर’ या चारों ओर से टाटी लगाकर लीप दिया जाये तो ‘झोपड़ी’ और रोजमर्रा में कमा-खा रहे व्यक्तियों के ‘सपनों के घर’ के रूप में जाना जाता है। यह प्रकृति के साहचर्य, उसके सामंजस्यपूर्ण उपयोग और शहरीकरण से पहले की जीवनशैली का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहा है, या कहें तो आज भी है।

चूँकि यह केवल एक आवासीय विकल्प नहीं है, बल्कि हमारे सांस्कृतिक, सामाजिक और पर्यावरणीय मूल्यों का प्रतीक भी है, यही युवा कलाकार सुमित कुमार के चित्रों की मूल संवेदना है। चूँकि सुमित कुमार अलीगढ़ के एक गाँव से आते हैं और ग्रामीण जीवन का सबसे प्रमुख एवं आकर्षक पहलू उसका भौतिक रूप होता है, इसीलिये गाँवों के नदी-नाले, ऊँची-नीची और उपजाऊ-बंजर भूमि, खेत-खलिहान, गोरू-बछरू और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का उनके जीवन से गहरा नाता रहा है। गाँवों की अधिसंख्य जनसंख्या कृषि कार्यों में संलग्न रहती है जो उनके जीवन का मुख्य आधार होता है। घरों की संरचना साधारण और आवश्यकताएं न्यूनतम होती हैं।

घर मिट्टी की दीवारों के और छत खपरैल तथा बैठका घास के छप्पर के हुआ करते हैं, हालाँकि वहाँ भी अब शहरी प्रभाव दिखने लगा है, पर सुमित की कला और रचनात्मकता में जो ग्रामीण-जीवन परिलक्षित होता है, वह पुराना गाँव ही है जहाँ एक परिवार की शाखाओं और उपशाखाओं के रूप में एक-दूसरे से जुड़े घर-द्वार या सुकून की तलाश में गाँव से थोड़ा हटकर बना सुन्दर घर, इनारा, मंदिर, खलिहान, फूल-पत्तियों से सजा बगीचा और आसपास के खेतों की सुन्दरता यहाँ के जीवन को समृद्ध करती है।

ग्रामीण क्षेत्र में जल की उपलब्धता भी प्राकृतिक और महत्त्वपूर्ण होती है। अधिकांश गाँवों में नदी, जलाशयों या कुओं से पानी लिया जाता है। सिंचाई की व्यवस्था के लिए नहरें, तालाब, कुएं (रहट) और अब ट्यूबवेल जीवन की सजीवता बनाए रखते हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। यहाँ के लोग मुख्यत: धान, गेहूँ, गन्ना, तिलहन की फसलें और फल-फूल की खेती करते हैं जो केवल आजीविका का साधन नहीं है, बल्कि यह ग्रामीण संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है और इससे सम्बन्धित सारी गतिविधियाँ एवं तीज-त्यौहार सब सुमित कुमार की कला में प्रकारान्तर से उपस्थित होते हैं।

सुमित का परिवार सनातनी रीति-रिवाजों से गहरे से जुड़ा हुआ है और वह उसी परिवेश में संस्कारित भी हैं, इसीलिए बार-बार, अनेक बार लौटकर भी सुमित न ऊब रहे हैं, न अपने कला प्रेमियों को उबा रहे हैं। वह दर्शकों के समक्ष हर बार नवाचार और बालमन के साथ उपस्थित हैं। वह अपने बचपन से बाहर नहीं आ रहे हैं और फिर सही मायने में बचपन छोड़ना भी कौन चाहता है! कोई अपने बच्चों, तो कोई नाती-पोतों में अपना बचपन जीना चाहता है और सुमित इसे अपनी रचनाओं में जीना चाहते हैं, जो सभी आयुवर्ग और रुचिसम्पन्न कलाप्रेमियों को लुभाती है।

सुमित कुमार एक संवेदनशील युवा कलाकार हैं। वह अपने परिवेश, परम्पराओं और अग्रजों द्वारा दिखाए गये आदर्शों और जीवन-मूल्यों के साथ जीवन जीने की ललक रखते हैं। सुमित ने बचपन और किशोरवय में गाँव का जीवन जिया है। गवईं जन-जीवन और क्रियाकलापों में पूरे उत्साह से भागीदारी की है- खेती-बाड़ी, मचान-खलिहान, मेले-ठेले, बालसखाओं के साथ उछल-कूद और शरारतों का भरपूर आनन्द लिया है, पर अब वह संजीदा हो गये हैं, छूटते जा रहे को पकड़ना चाहते हैं, फिर से जीना चाहते हैं दूर तक फैले दृश्यों – पेड़-पहाड़ और पशु-पक्षियों के संगीत को। गुनगुनाना चाहते हैं वही ‘बालराग’ बालसखाओं के साथ।

तभी तो याद करने लगे हैं उन रंगों को, जो जीवन की आपाधापी में फीके पड़ रहे थे और पकड़ना चाहते हैं उस ‘मड़ई’ एवं उसकी संस्कृति को जहाँ सुमित ने स्कूल से बंक मारा है, टीवी का एंटीना ठीक कर रामायण और महाभारत सीरियल देखा है, रेडियो पर सदाबहार गाने सुना है, खेतों में पम्पिंग सेट को चालू करने के लिए उसका हैंडल घुमाया है, साइकिल की चेन में पाजामा फँसाया है… और भी बहुत कुछ जो उनके चित्र गुनगुनाते हैं।

‘मड़ई’ और उसके आस-पास का जीवन अनेक रूपों में सुमित के चित्रों में जीवन भरता है, जैसे – एक-दूसरे का सहारा बने बुज़ुर्ग दंपत्ति दिखते हैं, तो पड़ोसी की बाग़ से आम तोड़ने के लिए दोस्त की पीठ पर बैठे बालसखा हैं, भैंस की पीठ पर बैठकर चरवाही करते बच्चे, एक दूसरे को उछालते बच्चे, काठ के घोड़े पर या रेलगाड़ी बनाकर एक दूसरे के पीछे बैठे कई बच्चे, मेले में पिपिहरी बजाते और लट्टू खेलते बच्चे, खटिया बीनता गृहस्थ, मसाला कूटती या गेहूँ पीसती गृहणी, साइकिल पर सामान लेकर जाते आदमी के साथ आगे बैठा छोटा बच्चा, बाइसकोप, गुब्बारे और आइसक्रीम वाला, कैंची-साइकिल चलाता बच्चा जिसके कैरियर पर उकुडूँ बैठा दूसरा बच्चा, हैंडपम्प के नीचे नहाता बच्चा, माँ की रसोई हो या पिता की बैलगाड़ी, विदा होती दुल्हन हो या बंदर-बंदरिया का नाच दिखाते मदारी हों या फिर दीवाली में पटाके छोड़ते – छुरछुरिया और चकरघिन्नी जलाते बच्चे हों और भी ऐसे न जाने कितने मन मोह लेने वाले बचपन में जिए गये पल हों, जो हम पीछे छोड़ आये हैं।

इन चित्रों में ‘मड़ई’ की ओट में खेला जाता आइस-पाइस है तो भूसे के ढेर में रखे बखार में साधुओं के दान-दक्षिणा और अतिथियों के स्वागत के लिए सुरक्षित अनाज भी है। सुमित कुमार की कला में ग्राम्य-संस्कृति के न जाने कितने रंग हैं जो इस वय में देख पाना सम्भव नहीं है। बस इतना ही कहा जा सकता है कि यह सुमित कुमार का समर्पण, कठिन परिश्रम और उनके गुरु डॉ अवधेश मिश्र के कुशल मार्गदर्शन का प्रतिफल है, जो वह कला जगत में अपने चित्रण-विषय, कथ्यात्मक-शैली, नवाचार और समृद्ध रंगों की संवेदनशील तानों के दक्षतापूर्ण व्यवहार के लिए वह ध्यातव्य हो गए हैं।

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